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क्यूँ दिया था? बता! मेरी वीरानियों में सहारा मुझे - फरीहा नक़वी कविता - Darsaal

क्यूँ दिया था? बता! मेरी वीरानियों में सहारा मुझे

क्यूँ दिया था? बता! मेरी वीरानियों में सहारा मुझे

मैं उदासी के मलबे तले दफ़्न थी, क्यूँ निकाला मुझे

ऐसी नाज़ुक थी घर के परिंदों से भी ख़ौफ़ खाती थी मैं

ये कहाँ, किन दरिंदों के जंगल में फेंका है तन्हा मुझे

ख़्वाब टूटे थे और किर्चियाँ अब भी आँखों में पैवस्त हैं

अब ये किस मुँह से फिर ख़्वाब की अंजुमन ने पुकारा मुझे

आठ तक तो ये गिनती भी आसान थी तू ने पढ़ ली, सो अब...

केलकुलेटर पकड़ और सुना! अपना नौ का पहाड़ा मुझे

यार था तू कभी, तेरी नज़्में हमेशा सलामत रहें

दाग़ देने को फिर ये रिदा चाहिए तो बताना मुझे

बस यूँही दर्द का अब्र शे'रों की बारिश में ढलता गया

वारिसान-ए-सुख़न! कोई तमग़ा नहीं है कमाना मुझे

कोई ऐसा तरीक़ा बता तेरी आवाज़ को चूम लूँ

उफ़ ये तेरा ''फ़रीहा! मिरी जान'' कह कर बुलाना मुझे

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