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ऐ मिरी ज़ात के सुकूँ आ जा - फरीहा नक़वी कविता - Darsaal

ऐ मिरी ज़ात के सुकूँ आ जा

ऐ मिरी ज़ात के सुकूँ आ जा

थम न जाए कहीं जुनूँ आ जा

रात से एक सोच में गुम हूँ

किस बहाने तुझे कहूँ आ जा

हाथ जिस मोड़ पर छुड़ाया था

मैं वहीं पर हूँ सर निगूँ आ जा

याद है सुर्ख़ फूल का तोहफ़ा?

हो चला वो भी नील-गूँ आ जा

चाँद तारों से कब तलक आख़िर

तेरी बातें किया करूँ आ जा

अपनी वहशत से ख़ौफ़ आता है

कब से वीराँ है अंदरूँ आ जा

इस से पहले कि मैं अज़िय्यत में

अपनी आँखों को नोच लूँ आ जा

देख! मैं याद कर रही हूँ तुझे

फिर मैं ये भी न कर सकूँ आ जा

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