मोहब्बतों की शिकस्तों का इक ख़राबा हूँ
ख़ुदारा मुझ को गिराओ कि मैं दोबारा बनूँ
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चाँदनी ने रात का मौसम जवाँ जैसे किया
दिल के घाव जब आँखों में आते हैं
पुकारा जब मुझे तन्हाई ने तो याद आया
देखे कोई जो चाक-ए-गरेबाँ के पार भी
नई मंज़िल का जुनूँ तोहमत-ए-गुमराही है
ज़िंदगी में ऐसी कुछ तुग़्यानीयाँ आती रहीं
वो रोज़-ओ-शब भी नहीं हैं वो रंग-ओ-बू भी नहीं
नश्शे में जो है कोहना शराबों से ज़ियादा
वो रोज़-ओ-शब भी नहीं है वो रंग-ओ-बू भी नहीं
कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
देखा तुझे तो आँखों ने ऐवाँ सजा लिए