जलते मौसम में कोई फ़ारिग़ नज़र आता नहीं
डूबता जाता है हर इक पेड़ अपनी छाँव में
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मैं शो'ला-ए-इज़हार हूँ कोताह हूँ क़द तक
नश्शे में जो है कोहना शराबों से ज़ियादा
कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
यही है दौर-ए-ग़म-ए-आशिक़ी तो क्या होगा
नई मंज़िल का जुनूँ तोहमत-ए-गुमराही है
अपने ही साए में था में शायद छुपा हुआ
यादों का अजीब सिलसिला है
मंसूर से कम नहीं है वो भी
जितने थे तेरे महके हुए आँचलों के रंग
अपने दरिया की प्यास
दीवारें खड़ी हुई हैं लेकिन
दो दरिया भी जब आपस में मिलते हैं