रंग-दर-रंग हिजाबात उठाने होंगे
रंग-दर-रंग हिजाबात उठाने होंगे
बे-महाबा हमें सब जल्वे दिखाने होंगे
जिन को तारीख़ की नज़रें भी कभी छू न सकें
बत्न-ए-गीती में कई ऐसे ज़माने होंगे
आज तक शाहों की तहवील में जो आ न सके
सैकड़ों ऐसे पुर-असरार ख़ज़ाने होंगे
पुश्त-हा-पुश्त से जो दस्त-निगर रहते हैं
अन-गिनत ऐसे भी मज़लूम घराने होंगे
जिन में ग़ुर्बत के असीरों को जगह मिल न सकी
वो फ़लक-बोस महल्लात गिराने होंगे
जिन में दहक़ानों की हसरत का झलकता है लहू
हम को वो गुलशन-ए-शादाब जलाने होंगे
नए अंदाज़ से छेड़ी है ग़ज़ल 'फ़ारिग़' ने
अब हर इक लब पे बग़ावत के तराने होंगे
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