इज़हार-ए-अक़ीदत में कहाँ तक निकल आए
इज़हार-ए-अक़ीदत में कहाँ तक निकल आए
हम अहल-ए-यकीं वहम-ओ-गुमाँ तक निकल आए
शादाब बहारों के तमन्नाई कहाँ हैं
मौसम के क़दम ज़ख़्म-ए-ख़िज़ाँ तक निकल आए
ये कैसा अलम है कि गरेबाँ हो सलामत
और आँखों से ख़ूँ भी रग-ए-जाँ तक निकल आए
कब निकलेगी दीवानों की बारात घरों से
सीनों में बग़ावत के निशाँ तक निकल आए
मक़्तल में बहत्तर भी नहीं निकले हैं अब के
दरगाहों में सब पीर-ओ-जवाँ तक निकल आए
अब तो न करो राह-नुमाओं की शिकायत
अख़बारों में अब उन के बयाँ तक निकल आए
अब कौन सर-ए-दार नज़र आएगा 'फ़ारिग़'
जब अहल-ए-जुनूँ सूद-ओ-ज़ियाँ तक निकल आए
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