ये ज़मीं ख़्वाब है आसमाँ ख़्वाब है
इक मकाँ ही नहीं ला-मकाँ ख़्वाब है
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परस्तिश की है मेरी धड़कनों ने
मुझ पे हो जाए तिरी चश्म-ए-करम गर पल भर
इतनी पी जाए कि मिट जाए मैं और तू की तमीज़
ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
हम से तंहाई के मारे नहीं देखे जाते
मैं अपने-आप से बरहम था वो ख़फ़ा मुझ से
हर्फ़ जैसे हो गए सारे मुनाफ़िक़ एक दम
दो झुकी आँखों का पहुँचा जब मिरे दिल को सलाम
हयात को तिरी दुश्वार किस तरह करता
आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के
सौत क्या शय है ख़ामुशी क्या है