परस्तिश की है मेरी धड़कनों ने
तुझे मैं ने फ़क़त चाहा नहीं है
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हयात को तिरी दुश्वार किस तरह करता
अज़ीज़ मुझ को हैं तूफ़ान साहिलों से सिवा
हर्फ़ जैसे हो गए सारे मुनाफ़िक़ एक दम
दश्त-ए-वहशत ने फिर पुकारा है
तुझ को खो कर मुझ पर वो भी दिन आए
आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के
ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
ये ज़मीं ख़्वाब है आसमाँ ख़्वाब है
दो झुकी आँखों का पहुँचा जब मिरे दिल को सलाम
देख के जिस को दिल दुखता था
नहीं है अब कोई रस्ता नहीं है