अज़ीज़ मुझ को हैं तूफ़ान साहिलों से सिवा
इसी लिए है ख़फ़ा मेरा नाख़ुदा मुझ से
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मैं शायद तेरे दुख में मर गया हूँ
आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के
सौत क्या शय है ख़ामुशी क्या है
जब तक चराग़-ए-शाम-ए-तमन्ना जले चलो
दश्त-ए-वहशत ने फिर पुकारा है
ये ज़मीं ख़्वाब है आसमाँ ख़्वाब है
ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
बात अपनी अना की है वर्ना
इतनी पी जाए कि मिट जाए मैं और तू की तमीज़
मुझ पे हो जाए तिरी चश्म-ए-करम गर पल भर
परस्तिश की है मेरी धड़कनों ने
हम से तंहाई के मारे नहीं देखे जाते