शाम कहती है कोई बात जुदा सी लिक्खूँ
शाम कहती है कोई बात जुदा सी लिक्खूँ
दिल का इसरार है फिर उस की उदासी लिक्खूँ
आज ज़ख़्मों को मोहब्बत की अता के बदले
तोहफ़ा ओ तम्ग़ा-ए-अहबाब-शनासी लिक्खूँ
साथ हो तुम भी मिरे साथ है तन्हाई भी
कौन से दिल से किसे वजह-ए-उदासी लिक्खूँ
जिस ने दिल माँगा नहीं छीन लिया है मुझ से
आप में आऊँ तो वो आँख हया सी लिक्खूँ
मुझ पे हो जाए तिरी चश्म-ए-करम गर पल भर
फिर मैं ये दोनों जहाँ ''बात ज़रा सी'' लिक्खूँ
दौड़ती है जो मिरे ख़ून में तेरी हसरत
देख आईना उसे ख़ून की प्यासी लिक्खूँ
तुझ से क्यूँ दूर है मजबूर है 'शहज़ाद' तिरा
पढ़ सके तू तो मैं सच्चाई ज़रा सी लिक्खूँ
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