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हयात को तिरी दुश्वार किस तरह करता - फ़रहत शहज़ाद कविता - Darsaal

हयात को तिरी दुश्वार किस तरह करता

हयात को तिरी दुश्वार किस तरह करता

मैं तुझ से प्यार का इज़हार किस तरह करता

था मेरी सौत पे पहरा ''अना-सिपाही'' का

मैं अपनी हार का इक़रार किस तरह करता

उसे था प्यार से बढ़ कर ख़याल दुनिया का

ये जान कर भी मैं इसरार किस तरह करता

तिरा वजूद गवाही है मेरे होने की

मैं अपनी ज़ात से इंकार किस तरह करता

मुझे ख़बर थी तुझे दुख मिलेंगे बदले में

क़ुबूल फिर मैं तिरा प्यार किस तरह करता

था हम-सफ़र भी सफ़र भी जो मेरी मंज़िल भी

उसी को राह की दीवार किस तरह करता

जो ख़ुद को बेचने बैठा था कौड़ियों के एवज़

मैं उस को अपना ख़रीदार किस तरह करता

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