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दो झुकी आँखों का पहुँचा जब मिरे दिल को सलाम - फ़रहत शहज़ाद कविता - Darsaal

दो झुकी आँखों का पहुँचा जब मिरे दिल को सलाम

दो झुकी आँखों का पहुँचा जब मिरे दिल को सलाम

यूँ लगा है दोपहर में जैसे दर आई हो शाम

उस के होंटों का किया जब ज़िक्र मेरे शेर ने

हर समाअत के लबों से जा लगा लबरेज़ जाम

जैसे सज्दे में कोई गिर कर न उठ्ठे देर तक

यूँ गिरी आँखों पे पलकें सुन के इक काफ़िर का नाम

दुख किसी का हो उसे धड़कन में अपनी सींच ले

किस ने सौंपा है मिरे दिल को ये पागल-पन का काम

अब तो जी में है कि हर दुख पर लगाऊँ क़हक़हा

हो गई हैं शहर में आँसू-भरी आँखें तो आम

हर्फ़ जैसे हो गए सारे मुनाफ़िक़ एक दम

कौन से लफ़्ज़ों में समझाऊँ तुम्हें दिल का पयाम

इस क़दर जल्दी भी क्या 'शहज़ाद' थी आख़िर बता

क्या बिगड़ता साथ गर तू और चलता चंद गाम

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