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दश्त-ए-वहशत ने फिर पुकारा है - फ़रहत शहज़ाद कविता - Darsaal

दश्त-ए-वहशत ने फिर पुकारा है

दश्त-ए-वहशत ने फिर पुकारा है

ज़िंदगी आज तू गवारा है

डूबने से बचा के माँझी ने

दर्द के घाट ला उतारा है

लाख तू मुझ से है मगर मुझ में

कब तिरी हम-सरी का यारा है

बात अपनी अना की है वर्ना

यूँ तो दो हाथ पर किनारा है

दिल की गुंजान रहगुज़ारों में

कर्ब-ए-तन्हाई का सहारा है

लोग मरते हैं बंद आँखों से

हम को इस आगही ने मारा है

जान-ए-'शहज़ाद' ज़िंदगी का सफ़र

हम ने बे-कारवाँ गुज़ारा है

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