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आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के - फ़रहत शहज़ाद कविता - Darsaal

आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के

आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के

मैं सैराब खड़ा था बीच सराबों के

तुझ को खो कर मुझ पर वो भी दिन आए

छुप न सका दुख पीछे कई नक़ाबों के

फ़िक्र का तन कब ढाँप सकी मद-होशी तक

छोड़ दिए नश्शों ने हाथ शराबों के

उम्र इन्ही के साथ गुज़ारी है जानाँ

ज़ख़्म मुझे लगते हैं फूल गुलाबों के

एक सवाल ने जब से मुझ को पहना है

शर्मिंदा हैं सारे रंग जवाबों के

किस से पूछूँ मैं रस्ता अब तुझ घर का

मुँह तकते हैं ख़ाली वरक़ किताबों के

जाने फिर कब वक़्त ये पल दोहराएगा

लग जा सीने तोड़ के बंद हिजाबों के

मुल्क में मेरे अम्न की ख़्वाहिश जान-ए-मन

बकरी जैसे बीच में सौ क़स्साबों के

ख़त्म नहीं 'शहज़ाद' फ़क़त तुझ पर तख़्लीक़

हम भी प्यारे ख़ालिक़ हैं कुछ ख़्वाबों के

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