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वो खुल कर मुझ से मिलता भी नहीं है - फ़रहत क़ादरी कविता - Darsaal

वो खुल कर मुझ से मिलता भी नहीं है

वो खुल कर मुझ से मिलता भी नहीं है

मगर नफ़रत का जज़्बा भी नहीं है

यहाँ क्यूँ बिजलियाँ मंडला रही हैं

यहाँ तो एक तिनका भी नहीं है

बरहना सर मैं सहरा में खड़ा हूँ

कोई बादल का टुकड़ा भी नहीं है

चले आओ मिरे वीरान दिल तक

अभी इतना अंधेरा भी नहीं है

समुंदर पर है क्यूँ हैबत सी तारी

मुसाफ़िर इतना प्यासा भी नहीं है

मसाइल के घने जंगल से यारो

निकल जाने का रस्ता भी नहीं है

अजब माहौल है गुलशन का 'फ़रहत'

हवा का ताज़ा झोंका भी नहीं है

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