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था पा-शिकस्ता आँख मगर देखती तो थी - फ़रहत क़ादरी कविता - Darsaal

था पा-शिकस्ता आँख मगर देखती तो थी

था पा-शिकस्ता आँख मगर देखती तो थी

माना वो बे-अमल था मगर आगही तो थी

इल्ज़ाम-ए-नारसी से मुबर्रा नहीं थी सीप

लेकिन किसी के शौक़ में डूबी हुई तो थी

माना वो दश्त-ए-शौक़ में प्यासा ही मर गया

इक झील जुस्तुजू की पस-ए-तिश्नगी तो थी

एहसास पर मुहीत थे लफ़्ज़ों के दाएरे

लफ़्ज़ों के दाएरों में मगर ज़िंदगी तो थी

वीराँ था सेहन-ए-बाग़ मगर इस क़दर न था

कोने में सूखे पत्तों की महफ़िल जमी तो थी

ग़म दूर कर के और भी मफ़्लूज कर दिया

तन्हाइयों की रात में दिल-बस्तगी तो थी

इस ठंडी रात में तो अँधेरे का राज है

सूरज जला रहा था मगर रौशनी तो थी

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