शुऊर-ओ-फ़िक्र की तज्दीद का गुमाँ तो हुआ
शुऊर-ओ-फ़िक्र की तज्दीद का गुमाँ तो हुआ
चलो कि फ़न का उफ़ुक़ किश्त-ए-ज़ाफ़राँ तो हुआ
बला से ले उड़ी मुझ को शुआ-ए-नूर-ए-सहर
फ़सील-ए-शब से गुज़र कर मैं बे-कराँ तो हुआ
ये कम नहीं है कि मैं हूँ ख़लाओं का हमराज़
मिरे वजूद में गुम सारा आसमाँ तो हुआ
ये ठीक है कि फ़ना हो गया वजूद उस का
मगर वो क़तरा समुंदर का राज़-दाँ तो हुआ
तमाम हर्फ़-ओ-नवा में सिमट गया लेकिन
हमारा ग़म भी बिखर कर ग़म-ए-जहाँ तो हुआ
जुनून-ए-शौक़ तो मस्लूब हो गया लेकिन
हर एक लम्हा मह-ओ-साल पर गराँ तो हुआ
हमारे साथ ही बिखरा हमारी ज़ात का कर्ब
ये राज़ लफ़्ज़ों के अम्बार से अयाँ तो हुआ
मैं उन के सामने आईना बन गया 'फ़रहत'
ख़ुद अपनी शक्ल पे उन को मिरा गुमाँ तो हुआ
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