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राज़ उबल पड़े आख़िर आसमाँ के सीनों से - फ़रहत क़ादरी कविता - Darsaal

राज़ उबल पड़े आख़िर आसमाँ के सीनों से

राज़ उबल पड़े आख़िर आसमाँ के सीनों से

रब्त इस ज़मीं को है और भी ज़मीनों से

कौन सा जहाँ है ये कैसे लोग हैं इस में

उठता है धुआँ हर दम दिल के आबगीनों से

हर बशर है फ़रियादी हर तरफ़ अंधेरा है

मेहर-ओ-मह नहीं निकले शहर में महीनों से

इक तरफ़ ज़बानों पर दोस्ती के नारे हैं

इक तरफ़ टपकता है ख़ून आस्तीनों से

मुफ़लिसों की बस्ती में वुसअतें हैं दुनिया की

आप उतर के देखें तो अपनी शह-नशीनों से

ना-ख़ुदा की हिम्मत का इम्तिहान लेती है

वर्ना कद नहीं कुछ भी मौज की सफ़ीनों से

तजरबों की दुनिया में अहल-ए-इल्म-ओ-हिक्मत को

रिफ़अतें मिलीं 'फ़रहत' फ़िक्र-ओ-फ़न के ज़ीनों से

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