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रातों के अंधेरों में ये लोग अजब निकले - फ़रहत क़ादरी कविता - Darsaal

रातों के अंधेरों में ये लोग अजब निकले

रातों के अंधेरों में ये लोग अजब निकले

सब नाम-ओ-नसब वाले बे-नाम-ओ-नसब निकले

ता'मीर-पसंदी ने कुछ ज़ीस्त पर उकसाया

कुछ मौत के सामाँ भी जीने का सब निकले

ये नूर के सौदागर ख़ुद नूर से आरी हैं

गर्दूं पे मह-ओ-अंजुम तनवीर-तलब निकले

ये दश्त ये सहरा सब वीरान हैं बरसों से

इस सम्त भी दीवाना तकबीर ब-लब निकले

तहज़ीब की बेबाकी ऐसी तो न थी पहले

हम जब भी कहीं निकले ता-हद्द-ए-अदब निकले

तस्कीं के लिए हम ने जिन से भी गुज़ारिश की

हम से भी ज़ियादा वो तस्कीन-तलब निकले

हस्ती की मसाफ़त में अपना जिन्हें समझा था

जब वक़्त पड़ा 'फ़रहत' वो मोहर-ब-लब निकले

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