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जितने लोग नज़र आते हैं सब के सब बेगाने हैं - फ़रहत क़ादरी कविता - Darsaal

जितने लोग नज़र आते हैं सब के सब बेगाने हैं

जितने लोग नज़र आते हैं सब के सब बेगाने हैं

और वही हैं दूर नज़र से जो जाने-पहचाने हैं

ज़ंजीरों का बोझ लिए हैं बे-दीवार के ज़िंदाँ में

फिर भी कुछ आवाज़ नहीं है कैसे ये दीवाने हैं

बच बच कर चलते हैं हर-दम शीशे की दीवारों से

कौन कहे दीवाना उन को ये तो सब फ़रज़ाने हैं

ख़ुद ही बुझा देते हैं शमएँ रौशनियों से घबरा कर

इस महफ़िल में ऐ लोगो कुछ ऐसे भी परवाने हैं

सय्यादों ने गुल-चीनों ने गुलशन को ताराज किया

लेकिन हम दीवानों से आबाद अभी वीराने हैं

उन का ग़म है अपना ग़म है अपने पराए सब का ग़म

शहर-ए-वफ़ा में फिर भी 'फ़रहत' और कई ग़म-ख़ाने हैं

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