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आई ख़िज़ाँ चमन में गए दिन बहार के - फ़रहत क़ादरी कविता - Darsaal

आई ख़िज़ाँ चमन में गए दिन बहार के

आई ख़िज़ाँ चमन में गए दिन बहार के

शर्मिंदा सब दरख़्त हैं कपड़े उतार के

मेक-अप से छुप सकेंगी ख़राशें न वक़्त की

आईना सारी बातें कहेगा पुकार के

इंसाँ सिमटता जाता है ख़ुद अपनी ज़ात में

बंधन भी खुलते जाते हैं सदियों के प्यार के

फिर क्या करेगा रह के कोई तेरे शहर में

रातें ही जब नसीब हों रातें गुज़ार के

सोचा है अपने ज़ख़्मों के आँगन में बैठ कर

सज्दे करूँगा नक़्श-ए-तमन्ना उभार के

तन्हाइयों का दर्द समेटे हुए कोई

'फ़रहत' चला है ठोकरें दुनिया को मार के

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