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ये फुर्क़तों में लम्हा-ए-विसाल कैसे आ गया - फ़रहत नदीम हुमायूँ कविता - Darsaal

ये फुर्क़तों में लम्हा-ए-विसाल कैसे आ गया

ये फुर्क़तों में लम्हा-ए-विसाल कैसे आ गया

मोहब्बतों में फिर नया उबाल कैसे आ गया

जिसे जहाँ के मशग़लों में अपना होश भी न था

अचानक आज उसे मिरा ख़याल कैसे आ गया

अभी तलक तो मेरे सारे ज़ख़्म थे हरे-भरे

यकायक उन को कार-ए-इंदिमाल कैसे आ गया

जुदाई का बस एक पल गिराँ था ज़िंदगी पे जब

तो दरमियान बहर-ए-माह-ओ-साल कैसे आ गया

अभी तलक थीं वक़्त की तनाबें उस के हाथ में

अदम फ़राग़तों का फिर सवाल कैसे आ गया

मिरे ज़रा से दर्द पर तड़प थी जिस की दीदनी

उसे सितमगरी का ये कमाल कैसे आ गया

'नदीम' अपनी चाहतों पे नाज़ था तुम्हें बहुत

तो फिर तुम्हारे इश्क़ पर ज़वाल कैसे आ गया

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