अब ज़िंदगी रो रो के गुज़ारेंगे नहीं हम

अब ज़िंदगी रो रो के गुज़ारेंगे नहीं हम

ये बोझ तो है बोझ उतारेंगे नहीं हम

तुम ख़ुद ही अगर लौट के आ जाओ तो बेहतर

हरगिज़ तुम्हें इस बार पुकारेंगे नहीं हम

इक इश्क़ की बाज़ी ही तो हम हारे हैं उस से

ऐ राह-ए-तलब हौसला हारेंगे नहीं हम

ये गेसू-ए-हस्ती के सँवरने की घड़ी है

अब गेसू-ए-जानाँ को सँवारेंगे नहीं हम

ढूँडेंगे हर इक चीज़ में जीने की उमंगें

दिल की किसी ख़्वाहिश को भी मारेंगे नहीं हम

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