इक ख़लिश सी है मुझे तक़दीर से
इक ख़लिश सी है मुझे तक़दीर से
अल-अमाँ उस ख़ार-ए-दामन-गीर से
हसरत-ए-नज़्ज़ारा की तासीर से
पर्दा उट्ठा यार की तस्वीर से
शाम-ए-ग़म के रोने वाले सब्र कर
सुब्ह भी होगी तिरी तक़दीर से
इद्दआ-ए-ज़ब्त-ए-ग़म करना पड़ा
तंग आ कर आह-ए-बे-तासीर से
मुझ को दीवाना समझ लें अहल-ए-होश
क्यूँ उलझते हैं मिरी ज़ंजीर से
दिल नहीं इक आबला सीने में है
इस निगाह-ए-गर्म की तासीर से
होती है तस्कीन 'फ़रहत' कुछ न कुछ
ख़ुश हूँ अपनी आह-ए-बे-तासीर से
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