तू फ़राहम न हो मुझ को ये है मर्ज़ी तेरी
तुझ को जब चाहूँ बुला लूँ ये इजाज़त मुझे दे
Rahat Indori
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रात बहुत शराब पी रात बहुत पढ़ी नमाज़
तराना-ए-रेख़्ता
बहुत मुमकिन था हम दो जिस्म और इक जान हो जाते
साँसें ना-हमवार मिरी
बिछड़े घर का साया
खड़ी है रात अंधेरों का अज़दहाम लगाए
ना-क़ाबिल-ए-यक़ीं था अगरचे शुरूअ' में
मैं बिछड़ों को मिलाने जा रहा हूँ
अब देखता हूँ मैं तो वो अस्बाब ही नहीं
ये तेरा मेरा झगड़ा है दुनिया को बीच में क्यूँ डालें
दर-अस्ल इस जहाँ को ज़रूरत नहीं मिरी
तमाम शहर की आँखों में रेज़ा रेज़ा हूँ