इश्क़ में पीने का पानी बस आँख का पानी
खाने में बस पत्थर खाए जा सकते थे
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बे-रंग बड़े शहर की हस्ती भी वहीं थी
अब देखता हूँ मैं तो वो अस्बाब ही नहीं
ख़ूब होनी है अब इस शहर में रुस्वाई मिरी
ज़मीं ने लफ़्ज़ उगाया नहीं बहुत दिन से
मैं भी यहाँ हूँ इस की शहादत में किस को लाऊँ
रास्ता दे ऐ हुजूम-ए-शहर घर जाएँगे हम
मेहरबाँ मौत ने मरतों को जिला रक्खा है
पुराना ज़ख़्म जिसे तजरबा ज़ियादा है
बड़ा वसीअ है उस के जमाल का मंज़र
फिर तुझे छू के देखता हूँ मैं
गर अपने आप में इंसान बढ़ता जा रहा है
तह-ए-बदन कहीं बेदार होता जाता हूँ