इक रात वो गया था जहाँ बात रोक के
अब तक रुका हुआ हूँ वहीं रात रोक के
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हम अपने आप को अपने से कम भी करते रहते हैं
कभी हँसते नहीं कभी रोते नहीं कभी कोई गुनाह नहीं करते
तमाम शहर की ख़ातिर चमन से आते हैं
दिन ने इतना जो मरीज़ाना बना रक्खा है
किस की है ये तस्वीर जो बनती नहीं मुझ से
मिरे सुबूत बहे जा रहे हैं पानी में
धूप बोली कि मैं आबाई वतन हूँ तेरा
आया ज़रा सी देर रहा ग़ुल गया बदन
कूज़ा-गर
तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर
गुनाहों की धुँद
अहल-ए-बदन को इश्क़ है बाहर की कोई चीज़