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तहरीर की फ़ुर्सत - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

तहरीर की फ़ुर्सत

डाकिया सारे जहाँ की ख़बरें

ले कर आता है मगर मेरे लिए

कितनी आवाज़ें मिरे साथ चला करती हैं

कभी माँ बाप के रोने की सदा

कभी अहबाब के फटते हुए जूतों की दुखन

कभी दुनिया के चटख़ते हुए आज़ा की पुकार

सुब्ह-ता-शाम वही एक शब का आहंग

दर ओ दीवार पे उड़ती हुई राहों का ग़ुबार

राख-दानी में वही सैकड़ों सोचों का धुआँ

चाय की प्यालियाँ फेंके हुए लम्हात को लिपटाए हुए

शेल्फ़ में दुबके हुए ज़ेहन के ना-पोख़्ता-नुक़ूश

मेज़ पर निस्फ़ ख़तों का अम्बार

कौन जाने उन्हें तहरीर की फ़ुर्सत कब हो?

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