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ज़मीं से अर्श तलक सिलसिला हमारा भी था - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

ज़मीं से अर्श तलक सिलसिला हमारा भी था

ज़मीं से अर्श तलक सिलसिला हमारा भी था

कि चश्म-ए-ख़ाक में इक ख़्वाब सा हमारा भी था

तू अपने घर की तरफ़ मोड़ ले गया है जिसे

ज़मीं से पूछ कि ये रास्ता हमारा भी था

ये सब चराग़ जलाए हुए हमारे भी हैं

बला-ए-शब का कभी सामना हमारा भी था

हमारे पाँव भी पड़ते न थे ज़मीं पे कभी

कभी कहीं यही तख़्त-ए-हवा हमारा भी था

ये हैं जो बाग़ में बोस-ओ-कनार के मंज़र

गए दिनों में यही मश्ग़ला हमारा भी था

किसी की ज़ुल्फ़ में देखा तो हम को याद आया

कि एक फूल उसी रंग का हमारा भी था

यही शराब कभी हम भी ख़ूब पीते थे

उसी नशे में सर उड़ता हुआ हमारा भी था

ज़मीन हिलती थी यूँ ही हमारे आने से भी

इसी तरह का कभी ज़लज़ला हमारा भी था

जो अब तुम्हारे तसर्रुफ़ में है मियाँ-'एहसास'

कभी ये अर्सा-ए-अर्ज़-ओ-समा हमारा भी था

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