ज़मीं ने लफ़्ज़ उगाया नहीं बहुत दिन से
ज़मीं ने लफ़्ज़ उगाया नहीं बहुत दिन से
कुछ आसमाँ से भी आया नहीं बहुत दिन से
बस अब रवाँ भी कर आग़ोश-ए-यार चाक अपना
कि मैं वजूद में आया नहीं बहुत दिन से
अजीब लोग हैं बस रास्तों में मिलते हैं
किसी ने घर ही बुलाया नहीं बहुत दिन से
तुझे भुलाना तो मुमकिन नहीं मगर यूँही
तिरा ख़याल ही आया नहीं बहुत दिन से
नमाज़ कैसे पढ़ूँ मैं बग़ैर पाक हुए
कि आंसुओं में नहाया नहीं बहुत दिन से
हम अपनी ममलिकत-ए-दर्द में अकेले हैं
हमारी कोई रेआ'या नहीं बहुत दिन से
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