वो महफ़िलें पुरानी अफ़्साना हो रही हैं
वो महफ़िलें पुरानी अफ़्साना हो रही हैं
इस बज़्म में तो शमएँ परवाना हो रही हैं
शायद कि मैं बहुत जल्द इस्लाम तर्क कर दूँ
बातें जो एक बुत से रोज़ाना हो रही हैं
है हद-ए-दिल से आगे रफ़्तार उस के ख़ूँ की
और धड़कनें भी ख़ुद से बेगाना हो रही हैं
मैं हंस रहा हूँ सुन कर बारे में ज़िंदगी के
क्या जिस्म-ओ-जाँ में बातें बचकाना हो रही हैं
बाग़-ए-बदन में उस के बे-रंग-ओ-बू रहे हम
अब ख़्वाहिशें ब-तौर-ए-जुर्माना हो रही हैं
पहले भी हो रही थीं पर सिर्फ़ शाइ'री में
आँखें तो अब की सच-मुच मय-ख़ाना हो रही हैं
मिट्टी के कान में ये क्या कह दिया हवा ने
सब ख़्वाहिशें बदन से बेगाना हो रही हैं
इक दिन जो 'फ़रहत-एहसास' उट्ठा नमाज़ पढ़ने
देखा कि मस्जिदें ख़ुद बुत-ख़ाना हो रही हैं
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