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वस्ल की रात में हम रात में बह जाते हैं - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

वस्ल की रात में हम रात में बह जाते हैं

वस्ल की रात में हम रात में बह जाते हैं

वस्ल कब करते हैं जज़्बात में बह जाते हैं

आब-जू हम हैं प दरिया के हमारे सभी ख़्वाब

रद्द-ए-ता'बीर की बरसात में बह जाते हैं

बार बार आते हैं हम अपने हमल में लेकिन

शहर की साज़िश-ए-इस्क़ात में बह जाते हैं

जिस्म के अपने भी जादू हैं प कच्चे हैं अभी

रूह की मश्क़-ए-तिलिस्मात में बह जाते हैं

तह-ए-दरिया-ए-करम देर से खुलती है सो हम

ऊपर ऊपर की इनायात में बह जाते हैं

ख़त्म-ए-मज्लिस पे न आया कभी रोना हम को

सारे आँसू तो शुरूआ'त में बह जाते हैं

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