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उस तरफ़ तू तिरी यकताई है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

उस तरफ़ तू तिरी यकताई है

उस तरफ़ तू तिरी यकताई है

इस तरफ़ मैं मिरी तन्हाई है

दो अलग लफ़्ज़ नहीं हिज्र ओ विसाल

एक में एक की गोयाई है

है निशाँ जंग से भाग आने का

घर मुझे बाइस-ए-रुस्वाई है

हब्स हैं मशरिक़ ओ मग़रिब दोनों

अब न पछवा है न पुरवाई है

घास की तरह पड़े हैं हम लोग

न बुलंदी है न गहराई है

जिस बयाबाँ में हूँ मैं आबला-पा

वो बयाबाँ मिरी सच्चाई है

उस की बातों पे ख़फ़ा मत होना

'फ़रहत' एहसास तो सौदाई है

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