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तेरे सूरज को तिरी शाम से पहचानते हैं - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

तेरे सूरज को तिरी शाम से पहचानते हैं

तेरे सूरज को तिरी शाम से पहचानते हैं

ज़िंदगी हम तुझे अंजाम से पहचानते हैं

किस क़दर धूप कमाता है यहाँ कोई इसे

रौनक़-ए-मशग़ला-ए-शाम से पहचानते हैं

इश्क़ वाले तो उठाते ही नहीं अपनी निगाह

हुस्न को हुस्न के अहकाम से पहचानते हैं

ख़ास अंदाज़ से ख़त लिखता है वो पर्दा-नशीं

हम उसे नुदरत-ए-पैग़ाम से पहचानते हैं

कौन करता है पस-ए-पर्दा-ए-आईना कलाम

अक्स को हैरत-ए-इल्हाम से पहचानते हैं

सख़्त तकलीफ़ उठाई है उसे जानने में

इस लिए अब उसे आराम से पहचानते हैं

सच फटे हाल सा फिरता है गली-कूचों में

सच को अक्सर इसी अंजाम से पहचानते हैं

मैं ने तरदीद तो भेजी थी प शाए न हुई

अहल-ए-शहर अब मुझे इल्ज़ाम से पहचानते हैं

कैसे नक़्क़ाद हैं ये इतनी बड़ी शाइ'री को

बस रिआयात से ईहाम से पहचानते हैं

'फ़रहत-एहसास' कभी घर से निकलता ही नहीं

शहर वाले उसे बस नाम से पहचानते हैं

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