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तन्हाई के आब-ए-रवाँ के साहिल पर बैठा हूँ मैं - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

तन्हाई के आब-ए-रवाँ के साहिल पर बैठा हूँ मैं

तन्हाई के आब-ए-रवाँ के साहिल पर बैठा हूँ मैं

लहरें आती जाती रहती हैं देखा करता हूँ मैं

कौन सा लफ़्ज़ अदा होने का पस-मंज़र है मेरा वजूद

किस का हौल है मेरे दिल में कैसा सन्नाटा हूँ मैं

हिज्र ओ विसाल चराग़ हैं दोनों तन्हाई के ताक़ों में

अक्सर दोनों गुल रहते हैं और जला करता हूँ मैं

ख़ाली दर-ओ-दीवार की ख़ुश्बू पागल रखती है मुझ को

जाने कहाँ वो फूल खिला है जिस का माँ-जाया हूँ मैं

सब ये सोचते हैं 'फ़रहत-एहसास' तमाशा है कोई

मैं ये सोचता रहता हूँ किस मिट्टी का पुतला हूँ मैं

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