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साहिब-ए-इश्क़ अब इतनी सी तो राहत मुझे दे - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

साहिब-ए-इश्क़ अब इतनी सी तो राहत मुझे दे

साहिब-ए-इश्क़ अब इतनी सी तो राहत मुझे दे

घर बना या दर-ओ-दीवार से रुख़्सत मुझे दे

जान ये सरकशी-ए-जिस्म तिरे बस की नहीं

मेरी आग़ोश में आ ला ये मुसीबत मुझे दे

तो फ़राहम न हो मुझ को ये है मर्ज़ी तेरी

तुझ को जब चाहूँ बुला लूँ ये इजाज़त मुझे दे

ये तिरी बज़्म-ए-बदन यूँ तो नहीं चल सकती

एक शब को ही सही इस की निज़ामत मुझे दे

आइने! मैं तिरा आईना-दर-आईना हूँ

आज तक का मिरा सरमाया-ए-हैरत मुझे दे

न मिलेगा तुझे मुझ सा भी तही-दस्त मुरीद

मेरे हिस्से की जो हो दौलत-ए-बैअत मुझे दे

जाने कब होगा मिरी ज़ात पे आप-अपना नुज़ूल

ख़्वाब कोई तो कभी मेरी बशारत मुझे दे

मेरे भी एक इशारे में हो मअ'नी का हुजूम

आँख उस की जो कभी दर्स-ए-बलाग़त मुझे दे

'फ़रहत-उल्लाह' के खाते में न डाल आईने

'फ़रहत-एहसास' हूँ मैं ला मिरी सूरत मुझे दे

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