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सब मिरा आब-ए-रवाँ किस के इशारों पे बहा जाता है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

सब मिरा आब-ए-रवाँ किस के इशारों पे बहा जाता है

सब मिरा आब-ए-रवाँ किस के इशारों पे बहा जाता है

और इक शहर मिरे दोनों किनारों पे बसा जाता है

मौज में आते ही लग जाती है होंठों पे बदन की मिट्टी

और इस ज़ाइक़ा-ए-ग़ैर से सब मेरा मज़ा जाता है

अहल-ए-ईमाँ इधर आराइश-ए-मस्जिद में लगे हैं और उधर

अपना सामान उठाए हुए मस्जिद से ख़ुदा जाता है

कोई मुझ जैसा ही रोज़ आता है आँखों में लिए सब्ज़ा-ए-दश्त

इक हरा ख़त दर-ओ-दीवार को देता है चला जाता है

चलती है आइने में कितने ज़मानों की हवा-ए-हैरत

एक रंग आता है चेहरे पे तो इक रंग उड़ा जाता है

मेरी इक उम्र और इक अहद की तारीख़ रक़म है जिस पर

कैसे रोकूँ कि वो आँसू मिरी आँखों से गिरा जाता है

चाक करना ही गरेबाँ का सिखाया है जुनूँ ने मुझ को

मैं ने सीखा ही नहीं कैसे गरेबाँ को सिया जाता है

'फ़रहत-एहसास' ने देखा है फ़लक पर कहीं इक ख़ित्ता-ए-ख़्वाब

बेच डाली है तमाम अर्ज़-ए-बदन उस ने सुना जाता है

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