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सब लज़्ज़तें विसाल की बेकार करते हो - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

सब लज़्ज़तें विसाल की बेकार करते हो

सब लज़्ज़तें विसाल की बेकार करते हो

क्यूँ बार बार नींद से बेदार करते हो

अच्छा तो तुम को मश्क़-ए-मसीहाई करनी है

इतना इसी लिए हमें बीमार करते हो

साया सरों पे धूप में करने की बात थी

ये नेक काम क्यूँ पस-ए-दीवार करते हो

कपड़े सफ़ेद देख के बोला ये मेरा जिस्म

किस जश्न के लिए मुझे तय्यार करते हो

वा'दा तो ये कि घर में बसाएँगे हम तुम्हें

फिर हम को क़ैदी-ए-दर-ओ-दीवार करते हो

है इश्क़ के सिवा भी कोई बात वर्ना तुम

क्यूँ बार बार इश्क़ का इज़हार करते हो

ऐसा है कौन दिल का ख़रीदार जिस पे तुम

छोटी सी इस दुकान को बाज़ार करते हो

हम तो तुम्हारे क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में हैं तो फिर

इतना क़रीब क्यूँ मिरी सरकार करते हो

दिलदार दिल से लग के खड़े हों तो किस लिए

दुनिया की ओट से मिरा दीदार करते हो

'एहसास' ही ने तुम को बनाया है बादशाह

'एहसास' ही को राँदा-ए-दरबार करते हो

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