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रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है

रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है

जिस्म को लेकिन बहुत कुछ और भी दरकार है

आज फिर हम से किया दरयाफ़्त कोह-ए-तूर ने

इस से क्या कहते कि नूर-ए-गुमरही दरकार है

बा'द में इश्क़-ए-हक़ीक़ी भी मयस्सर हो तो क्या

ये मजाज़ी तो हमें फ़ौरन अभी दरकार है

इश्क़ उस ख़्वाहिश पे मेरी सोच में गुम हो गया

मुझ को पानी भी है दरकार आग भी दरकार है

फ़रहत-एहसास अपनी मिट्टी का धड़कता दिल सँभाल

बा'द मरने के जो तुझ को ज़िंदगी दरकार है

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