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पुराना ज़ख़्म जिसे तजरबा ज़ियादा है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

पुराना ज़ख़्म जिसे तजरबा ज़ियादा है

पुराना ज़ख़्म जिसे तजरबा ज़ियादा है

ज़ियादा दिखता नहीं सोचता ज़ियादा है

ज़रा ज़ियादा मोहब्बत भी चाहिए हम को

हमारा दिल भी तो टूटा हुआ ज़ियादा है

तिरा विसाल ज़रूरत है जिस्म-ओ-जाँ की तो हो

तिरा ख़याल मिरे काम का ज़ियादा है

जो मस्जिदों की तरफ़ इस क़दर बुलाते हैं

तो क्या ये है कि कहीं कुछ ख़ुदा ज़ियादा है

मैं बार बार जो उस की तलब में जाता हूँ

ख़याल-ए-ख़ाम में शायद मज़ा ज़ियादा है

अमीर-ए-शहर से अब कौन बाज़-पुर्स करे

कि उस के पास बहुत सी क़बा ज़ियादा है

ये आइना मिरा आईना-ए-मुहब्बत है

पर उस में अक्स किसी और का ज़ियादा है

बदन के बाग़ में सब रौनक़ें हैं दिल के क़रीब

इसी नवाह में बाद-ए-सबा ज़ियादा है

हुजूम-ए-शिद्दत-ए-'एहसास' बाढ़ पर है आज

करम भी आज ग़ज़ल का ज़रा ज़ियादा है

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