फिर वही मौसम-ए-जुदाई है
फिर वही मौसम-ए-जुदाई है
फिर मुझे अपनी याद आई है
फिर पढ़ा मैं ने तेरा पहला ख़त
फिर से तुझ तक मिरी रसाई है
फूल सा फिर महक रहा हूँ मैं
फिर हथेली में वो कलाई है
पहले बोसे की नीम-गर्म आहट
फिर रग-ए-जाँ में रत-जगाई है
फिर हरी है तमाम तन्हाई
फिर से पानी को सब्ज़-पाई है
फिर मिरा है तमाम सन्नाटा
फिर मिरी बाज़-गश्त छाई है
फिर ज़माना मिरी गिरफ़्त में है
फिर मुझे वहम-ए-किबरियाई है
फिर तुझे छू के देखता हूँ मैं
फिर से क़िंदील सी जलाई है
फिर तसव्वुर में तेरे लब आए
मेरी हर बात फिर हिनाई है
ढेर है फिर से ख़ाक की दीवार
फिर मुझे ज़ौक़-ए-रूनुमाई है
फिर वही में नया नया सा हूँ
फिर ज़मीं से मिरी रिहाई है
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