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पैकर-ए-अक़्ल तिरे होश ठिकाने लग जाएँ - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

पैकर-ए-अक़्ल तिरे होश ठिकाने लग जाएँ

पैकर-ए-अक़्ल तिरे होश ठिकाने लग जाएँ

तेरे पीछे भी जो हम जैसे दिवाने लग जाएँ

उस का मंसूबा ये लगता है गली में उस की

हम यूँही ख़ाक उड़ाने में ठिकाने लग जाएँ

सोच किस काम की रह जाएगी तेरी ये बहार

अपने अंदर ही अगर हम तुझे पाने लग जाएँ

सब के जैसी न बना ज़ुल्फ़ कि हम सादा-निगाह

तेरे धोके में किसी और के शाने लग जाएँ

रात भर रोता हूँ इतना कि अजब क्या इस में

ढेर फूलों के अगर मिरे सिरहाने लग जाएँ

दश्त करना है हमें शहर के इक गोशे को

तो चलो काम पे हम सारे दिवाने लग जाएँ

'फ़रहत' एहसास अब ऐसा भी इक आहंग कि लोग

सुन के अशआर तिरे नाचने गाने लग जाएँ

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