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ना-क़ाबिल-ए-यक़ीं था अगरचे शुरूअ' में - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

ना-क़ाबिल-ए-यक़ीं था अगरचे शुरूअ' में

ना-क़ाबिल-ए-यक़ीं था अगरचे शुरूअ' में

सूरज मगर ग़ुरूब हुआ था तुलूअ' में

मुल्ला को दे दिया है नमाज़ों का बाक़ी काम

ख़ुद को लगा लिया है ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ूअ' में

सिर्फ़ एक चेहरा एक ही नाम एक ही ख़याल

होता है सब के साथ यही सब शुरूअ' में

इतने हलाला-बाज़ अगर घात में न हों

क्या ऐसा फ़ासला है तलाक़-ओ-रुजूअ' में

शायद मिरी नमाज़ यहीं ख़त्म हो गई

इक उम्र हो गई कि रुका हूँ रूकूअ' में

मोहमल सही प ताब-ओ-तवानाई देखिए

उस ऐन से जो आई है इस आब-ओ-जूअ' में

उर्दू में तो बस एक वुज़ू और इक नमाज़

दो दो नमाज़ें होती हैं अरबी वुज़ूअ' में

असलें तमाम नाचती गाती गुज़र गईं

देखा नहीं किसी ने वफ़ूर-ए-फ़ुरूअ' में

'एहसास' क्या है ये 'ज़फ़र' 'इक़बाल' की तरह

तौसीअ ऐन शे'र की हद्द-ए-वक़ूअ' में

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