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मेरी कोई तारीफ़ नहीं है मैं वक़्फ़ों वक़्फ़ों में हूँ - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

मेरी कोई तारीफ़ नहीं है मैं वक़्फ़ों वक़्फ़ों में हूँ

मेरी कोई तारीफ़ नहीं है मैं वक़्फ़ों वक़्फ़ों में हूँ

जाने किन लम्हों में नहीं हूँ जाने किन लम्हों में हूँ

बाक़ी हिस्सा पड़ा हुआ है जाने किस तारीकी में

मैं बस उतना ही ज़िंदा हूँ जिस हद तक लफ़्ज़ों में हूँ

साँसों का आना जाना मेरे होने की दलील नहीं

दो साँसों के बीच ख़ला करने वाले लम्हों में हूँ

मुद्दत गुज़री एक इबादत में फ़रियाद गुज़ारी थी

मैं अपनी ही ज़ात के घर में ना-जाएज़ क़ब्ज़ों में हूँ

वो उस्लूब कहाँ से हासिल हो जो मुझ को नज़्म करे

रज़्मिय्ये की एक कथा छोटी छोटी बहरों में हूँ

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