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मिरे शे'रों में फ़नकारी नहीं है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

मिरे शे'रों में फ़नकारी नहीं है

मिरे शे'रों में फ़नकारी नहीं है

कि मुझ में इतनी हुश्यारी नहीं है

दवा-ए-मौत क्यूँ लेते हो इतनी

अगर जीने की बीमारी नहीं है

बदन फिर से उगा लेगी ये मिट्टी

कि मैं ने जाँ अभी हारी नहीं है

मोहब्बत है ही इतनी साफ़-ओ-सादा

ये मेरी सहल-अँगारी नहीं है

इसे बच्चों के हाथों से उठाओ

ये दुनिया इस क़दर भारी नहीं है

मैं उस पत्थर से टकराता हूँ बे-कार

ज़रा भी उस में चिंगारी नहीं है

न क्यूँ सज्दा करे अपने बुतों का

ये सर मस्जिद का दरबारी नहीं है

गया ये कह के मुझ से इश्क़ का रोग

कि तुझ को शौक़-ए-बीमारी नहीं है

हमारा इश्क़ करना जिस्म के साथ

इबादत है गुनहगारी नहीं है

ब-राह-ए-जिस्म है सारा तसव्वुफ़

बदन सूफ़ी है ब्रह्मचारी नहीं है

ये कोई और होगा 'फ़रहत-एहसास'

नहीं ये भी मिरी बारी नहीं है

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