महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
रंग-ए-लिबास रंग-ए-बदन से सिवा न हो
इतना तो रंग पहले फ़ज़ा में कभी न था
उड़ती हुई कहीं कोई उस की क़बा न हो
उलझन सी होने लगती है मेरे चराग़ को
कुछ दिन मुक़ाबले पे जो उस के हवा न हो
सारी अलामतें तो हैं आग़ाज़ इश्क़ की
देखो तो जिस्म-ओ-जाँ में कोई गुल खिला न हो
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