लोग यूँ जाते नज़र आते हैं मक़्तल की तरफ़
लोग यूँ जाते नज़र आते हैं मक़्तल की तरफ़
मसअले जैसे रवाना हों किसी हल की तरफ़
मैं हूँ इक लफ़्ज़ तरसता हूँ मगर मअ'नी को
रश्क से देखता हूँ ताबे-ए-मोहमल की तरफ़
शहर वाले ही कभी खींच के ले आते हैं
जी मिरा वर्ना उड़ा फिरता है जंगल की तरफ़
बे-ख़बर हाल से हूँ ख़ौफ़ है आइंदा का
और आँखें हैं मिरी गुज़रे हुए कल की तरफ़
वो उदासी है कि सब बुत से बने बैठे हैं
कोई हलचल है तो बस शहर के पागल की तरफ़
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