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लगे हुए हैं ज़माने के इंतिज़ाम में हम - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

लगे हुए हैं ज़माने के इंतिज़ाम में हम

लगे हुए हैं ज़माने के इंतिज़ाम में हम

कभी ख़वास में शामिल कभी अवाम में हम

पुकारते हैं बुतों को ख़ुदा के नाम से हम

गुनाह करते हैं और कितने एहतिमाम में हम

फिर उस का दख़्ल भी क्यूँ हो हमारे कामों में

मुदाख़लत नहीं करते ख़ुदा के काम में हम

पनाह माँगती है धार तेग़-ए-मा'नी की

वो काट रखते हैं अलफ़ाज़-ए-बे-नियाम में हम

अब आफ़्ताब से महताब बन गए होंगे

नज़र न आएँगे लेकिन ग़ुबार-ए-शाम में हम

निगाह उस की मिरी सम्त चेहरा और तरफ़

सो चूक जाते हैं अंदाज़ा-ए-सलाम में हम

मिरी नमाज़ की रफ़्तार पर नज़र रक्खो

रुकू-ओ-सजदे में हैं और न हैं क़याम में हम

सभी समाअ'तें आँखों को खोल कर रखें

चमक उठेंगे अचानक किसी कलाम में हम

अचानक आते हैं गिर्दाब जैसे दरिया में

इक इंक़लाब की आँखें लिए अवाम में हम

ख़ुद अपने जिस्म की बे-हुरमती भी करते रहे

फ़ना भी होते रहे कोशिश-ए-दवाम में हम

हमें भी दख़्ल है कुछ कार-गाह-ए-आलम में

हर एक काम के बाहर हर एक काम में हम

हमारा नाम तो है क़ैस-ए-साकिन-ए-सहरा

पुकारे जाते हैं 'एहसास' उर्फ़-ए-आम में हम

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