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ख़ुदा ख़ामोश बंदे बोलते हैं - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

ख़ुदा ख़ामोश बंदे बोलते हैं

ख़ुदा ख़ामोश बंदे बोलते हैं

बड़े चुप हों तो बच्चे बोलते हैं

सुनो सरगोशियाँ कुछ कह रही हैं

ज़बाँ-बंदी में ऐसे बोलते हैं

मोहब्बत कैसे छत पर जाए छुप कर

क़दम रखते ही ज़ीने बोलते हैं

नशे में झूमने लगते हैं मा'नी

तो लफ़्ज़ों में करिश्मे बोलते हैं

ये हम ज़िंदों से मुमकिन ही नहीं है

जो कुछ मुर्दों से मुर्दे बोलते हैं

हम इंसानों को आता है बस इक शोर

तरन्नुम में परिंदे बोलते हैं

ख़मोशी सुनती है जब अपनी आवाज़

तो सीनों में दफ़ीने बोलते हैं

मैं पैग़मबर नहीं हूँ फिर भी मुझ में

कई गुम-सुम सहीफ़े बोलते हैं

यही है वक़्त बोलो 'फ़रहत-एहसास'

कि हर जानिब कमीने बोलते हैं

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