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ख़ुद से इंकार को हम-ज़ाद किया है मैं ने - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

ख़ुद से इंकार को हम-ज़ाद किया है मैं ने

ख़ुद से इंकार को हम-ज़ाद किया है मैं ने

मैं वही हूँ जिसे बर्बाद किया है मैं ने

ज़ुल्म अँधेरे का तो सूरत मिरी ता'मीर की है

रौशनी का सितम ईजाद किया है मैं ने

कोई करता हो जो दीवार-ए-फ़रामोशी को पार

उस से कह दे कि उसे याद किया है मैं ने

अब निकलता ही नहीं इस क़फ़स-ए-हल से कभी

इसी आग़ोश को सय्याद किया है मैं ने

मिल के शैताँ से लिखा ली ये ज़मीं नाम अपने

फिर इसे मुल्क-ए-ख़ुदा-दाद किया है मैं ने

फ़रहत-उल्लाह को खोला है ब-अंदाज़-ए-ग़ज़ल

'फ़रहत-एहसास' को आज़ाद किया है मैं ने

याद आती है तो फिर सोच में पड़ जाता हूँ

सोचता रहता हूँ क्या याद किया है मैं ने

फ़र्द के लफ़्ज़ को थी कसरत-ए-मा'नी की तलाश

सो उसे खोल के अफ़राद किया है मैं ने

मेरी मिट्टी तो कुँवारी की कुँवारी ही रही

जिस्म को साहिब-ए-औलाद किया है मैं ने

उस के दो हुस्न हैं कारीगरी-ए-ख़ाक से एक

और इक वो जिसे ईजाद किया है मैं ने

आप का ही तो था इसरार कुछ इरशाद करो

आप ही चुप हैं जो इरशाद किया है मैं ने

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